नि:स्वार्थ प्रेम (Selfless love)

niswarth prem

काफी पुरानी बात है एक व्यक्ति के परिवार में बार-बार वाद-विवाद होता रहता था। वह इस बात से बहुत दुखी रहता था। तंग आकर उसने एक दिन सोचा कि अब मुझे संन्यास ले लेना चाहिए और घर पर बिना किसी को कुछ बताएं सब कुछ छोड़कर जंगल की ओर निकल गया।

नि:स्वार्थ प्रेम

जंगल में उसे एक आश्रम दिखाई दिया। वह आश्रम में पहुंचा तो उसने देखा कि एक संत पेड़ के नीचे बैठकर तपस्या कर रहे थे। दुखी व्यक्ति संत के सामने बैठ गया और उनका ध्यान खत्म होने तक इंतजार करने लगा। जब संत का ध्यान पूरा हुआ और उन्होंने आंखें खोली तो व्यक्ति ने संत से कहा कि गुरुदेव मुझे अपनी शरण में ले लीजिए मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूं।

मैं सब कुछ छोड़कर भगवान की भक्ति करने आया हूं। संत ने उससे पूछा कि तुम अपने घर में किसी से प्रेम करते हो। व्यक्ति ने कहा कि नहीं मैं अपने परिवार में किसी से प्रेम नहीं करता। संत ने कहा कि क्या तुम्हें अपने माता-पिता भाई-बहन पत्नी और बच्चों में से किसी से भी लगाओ नहीं है। व्यक्ति ने संत को कहा नहीं यह पूरी दुनिया स्वार्थी है , मैं अपने घर परिवार में किसी से भी स्नेहा नहीं करता। मुझे किसी से लगाव नहीं है गुरुजी इसलिए मैं सब कुछ छोड़कर सन्यास लेना चाहता हूं।

संत ने व्यक्ति को नहीं बनाया अपना शिष्य

संत ने कहा भाई तुम मुझे क्षमा करो मैं तुम्हें शिष्य नहीं बन सकता। मैं तुम्हारे अशांत मन को शांत नहीं कर सकता हूं। यह सुनकर व्यक्ति हैरान हो गया संत बोले अगर तुम्हें अपने परिवार से थोड़ी भी प्रेम होता तो मैं उसे और बढ़ा सकता था।

अगर तुम अपने माता-पिता से प्रेम करते तो मैं इस प्रेम को बढ़ाकर तुम्हें भगवान की भक्ति में ला सकता था, लेकिन तुम्हारे मन बहुत कठोर है। एक छोटा सा बीज ही विशाल वृक्ष बन सकता है, लेकिन तुम्हारे मन में कोई भाव है ही नहीं। मैं किसी पत्थर से पानी का झड़ना कैसे बह सकता हूं।

कहानी से सीख (Moral of The Story) :- इस कहानी से हमें या सीख मिलती है कि जो लोग अपने परिवार से प्रेम करते हैं। माता-पिता का सामान करते हैं वह लोग ही भक्ति पूरी एकाग्रता के साथ कर पाते हैं।

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